Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बहुत दर्द है

 

आख़िर कब तक, लय में रोएँ, बहुत दर्द है।
कब तक उनकी, शर्तें ढोएँ, बहुत दर्द है।।

 

बहुत जगाया, नहीं जागाते, बेसुध सोए।
हम सोएँ तो, कैसे सोएँ, बहुत दर्द है।।

 

बहुत पास से, गहराई तक, तीर चले हैं।
ज़ख़्म हरे हैं, कैसे धोएँ, बहुत दर्द है।।

 

विष के पौधे, खल ने रोपे, चलो उखाड़ें।
और धरा पर, औषध बोएँ, बहुत दर्द है।।

 

हड़तालों ने, रोकी राहें, उठी कराहें।
'सिद्ध' समय हम, कितना खोएँ, बहुत दर्द है।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध',

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