निश-दिन घातें
छल की बातें
छल की उनकी रीत।
छलिया छलने
द्वारे आए
दिखा रहे हैं प्रीत।।
बने वे भले आज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।१।।
ये भी लूटा
वो भी लूटा
बचा नहीं कुछ शेष।
जब जनता से
पड़ा काम तो
बने फिरें दरवेश ।।
कपट के किए काज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।२।।
हमें परस्पर
वे लड़वाते
मन में नफ़रत घोल।
जन-साधारण
के जीवन का
रहा नहीं कुछ मोल।।
गिराते चले गाज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।३।।
गले मिले वे
लाड़ लड़ाया
माँग लिया फिर वोट।
जीत गए तो
छुप-छुप कर वे
करें चोट पर चोट।।
गजब के दगाबाज़ हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।४।।
वे पहले से
ही दादा थे
और मिले अधिकार।
अब ऐसे में
वे जनता को
क्यों ना मारें मार ।।
कोढ़ में हुई खाज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।५।।
खिले-खिले हैं
पड़े पिले हैं
माल मिला भरपूर।
वे इतराते
पास न आते
रहते हम से दूर ।।
अलग उनके समाज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।६।।
रोक नहीं है
टोक नहीं है
करते नंगा नाच।
उनके तन को
कानूनों की
तनिक न आती आँच।।
ताक पर रखे लाज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।७।।
चुप ना रहता
जो कुछ कहता
सर को लेते काट।
हाड़-मांस को
चट कर जाते
लहु को जाते चाट।
गरम उनके मिजाज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।८।।
वे ना रखते
पैर धरा पर
गए धरा को भूल।
जब-जब आते
दे-दे जाते
अपनी आँखों धूल।
उड़े उनके जहाज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।९।।
सुध-बुध खोए
वे हैं सोए
जनता तू ही जाग।
हंस चुगे है
दाना-तिनका
मोती कपटी-काग।।
शीश पर धरे ताज हैं।
बड़े बेसुरे साज हैं।।१०।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY