(व्यंग्य) ठाकुर दास 'सिद्ध',
बड़े अचरज की बात है कि एक दौड़ ऐसी भी होती है जिसमें दौड़ने वाला दौड़ता ही नहीं, केवल अभिनय करता है दौड़ने का,एक गोल घेरे में। केन्द्र में होती है कुर्सी और वह पड़ा रहता है पूरे समय कुर्सी के फेरे में। उसके मन की बात का सच यही है कि उसका मन पूरे समय कुर्सी को मचलता है। जब तक टनटनाता है घंटा,तब तक दौड़ने का अभिनय चलता है और जैसे ही मौन हुआ घंटा तो तुरत कुर्सी की ओर उछलता है।
छलिया है, हमको बार-बार छलता है। पहले तो भला बनता है, भोला बनता है। लेकिन पाते ही कुर्सी, वह अपनी छाती पर मूँग दलता है। क्या बतलाएँ कि वह नौटंकीबाज किसे नहीं खलता है।
कुर्सियाँ होती हैं कम और कुर्सी के चहीते ज्यादा होते हैं, इसलिए मारा मारी होती है। पा गया कुर्सी तो कुर्सी का होता है नशा, खो दी कुर्सी तो कुर्सी की खुमारी होती है। कुर्सी के लिए बार-बार जंग जारी होती है, और इस जंग में दुर्गति हमारी होती है।
उधर कुर्सियाँ हैं, कुर्सियों पर नेता हैं। नेता, जो नख-शिख सजे हैं। मजे ही मजे हैं।
इधर हम हैं, और ग़म ही ग़म हैं। ग़म इसलिए कि बेवफ़ा सनम हैं।
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