(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',
महफ़िल में जा के देखा, दुनिया तमाम आना।
हम को न रास आया, महफ़िल में जाम आना।।
हम उनकी जवानी पर, हो जाते फ़िदा लेकिन।
था अपनी जवानी को, दुनिया के काम आना।।
बहकाया बहुत हम को, हम थे जो नहीं बहके।
ख़त ख़ूँ से लिखा उनका,अपने ही नाम आना।।
लगता है बिकाऊ सा, उस शख़्स ने समझा है।
ये सुबहो-शाम उसका, ले-ले के दाम आना।।
हमको न समझ आई, ये उनकी समझदारी।
हम ले के सुबह आए, वो बोले शाम आना।।
आँखों को रेत सी अब, चुभती है बेलगामी।
दिल चीख-चीख बोले, ले के लगाम आना।।
है 'सिद्ध' छुपा इसमें, कोई तो होगा मतलब।
जो देता रहा गाली, उसका सलाम आना।।
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