Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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चूल्हे कभी-कभी चलते थे

 

चूल्हे कभी-कभी जलते थे ।
रोटी के सपने खलते थे ।।

 

कहने को अपनी बस्ती थी ।
पर उसके सिक्के चलते थे ।।

 

अपना मूँग,आदमी उनके ।
अपनी छाती पर दलते थे ।।

 

सबको दो-दो हाथ मिले थे ।
सब जिनको मिलकर मलते थे।।

 

कुछ तो ओर-छोर पत्थर थे।
कुछ थे,बार-बार गलते थे ।।

 

ठिठकी-सहमी-थमी हवा थी।
गमछों के पंखे झलते थे ।।

 

जब जूते ज्यादा चलते थे ।
तब जूते कुछ कम चलते थे।।

 

बार-बार मनमोहक वादे ।
मन को मोह-मोह छलते थे।।

 

'सिद्ध'सभी दो पैरों वाले ।
जैसे चौपाए पलते थे।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

 

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