चूल्हे कभी-कभी जलते थे ।
रोटी के सपने खलते थे ।।
कहने को अपनी बस्ती थी ।
पर उसके सिक्के चलते थे ।।
अपना मूँग,आदमी उनके ।
अपनी छाती पर दलते थे ।।
सबको दो-दो हाथ मिले थे ।
सब जिनको मिलकर मलते थे।।
कुछ तो ओर-छोर पत्थर थे।
कुछ थे,बार-बार गलते थे ।।
ठिठकी-सहमी-थमी हवा थी।
गमछों के पंखे झलते थे ।।
जब जूते ज्यादा चलते थे ।
तब जूते कुछ कम चलते थे।।
बार-बार मनमोहक वादे ।
मन को मोह-मोह छलते थे।।
'सिद्ध'सभी दो पैरों वाले ।
जैसे चौपाए पलते थे।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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