(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
आदमी ही आदमी के याँ शिकार हों।
दर्द ये कि हादसे ये बार-बार हों।।
लुत्फ़ नग्नता का लोग ले रहे यहाँ।
जो हों शर्मदार, वो ही शर्मसार हों।।
होते गैर के तो हाथ में थी ढाल भी।
तीर यार के हैं, क्यों न आर-पार हों।।
काँटेदार हैं हक़ीक़तें कि क्या कहें।
देखिए न, ख़्वाब सारे तार-तार हों।।
रोशनी से दूर-दूर 'सिद्ध' वो रहे।
द़ागदार चाहते हैं अंधकार हों।।
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY