देखा न गया उनसे, इक बार भी उलफ़त से।
जो उनके दिए ग़म हैं, रक्खे हैं हिफ़ाजत से।।
मन ये कि उन्हें देखूँ, हाथों से अपने छू के।
भरता ही नहीं जी अब, अपना है फ़क़त ख़त से।।
जो तीर-ए-नज़र छोड़ा, उनने तो हुए घायल।
कोई भी नहीं वाक़िफ़, इस उनकी शरारत से।।
हम बार-बार उनको, दे-दे के न्यौता हारे।
हँस-हँस के सनम कहते, हम आएँगे फुर्सत से।।
ये कैसा सितम उनका, ये कैसा नाज़-ओ-नखरा।
आती है हँसी उनको, क्यों मेरी शिकायत से।।
ऐ मेरे सनम मेरा, दिल तेरा दीवाना है।
मैं जुस्तजू में तेरी, लड़ जाऊँ क़यामत से।।
ये मेरा दीवानापन, दुनिया से निराला है।
फिर मेरे सनम मुझ को, क्या काम रवायत से।।
तुम ज़िन्दगी में मेरी, आते तो खिलता ये दिल।
हर ख़्वाब मेरा मिलता, इस तरहा हक़ीक़त से।।
वो बोले-' आ तो जाऊँ, इक शर्त होगी लेकिन।
हर काम करोगे तुम, बेगम की इजाजत से '।।
अब 'सिद्ध' कोई उनको, समझाए फलसफा ये।
नाता न मुहब्बत का, होता है हुकूमत से।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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