Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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धड़कन-धड़कन रही वेदना

 

 

जो भी कहा,कहा सब सच-सच,
बात नहीं वे मान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।

 

है कोटा-परमिट में अटका,
मन संसारी जीवों का।
ऐसे जीता आम आदमी,
ढोता भार सलीबों का।।
खास-खास के घर पर यारो,
सुख के सब सामान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।१।।

 

जो थे समीकरण समता के,
टूटे-बिखरे राहों में।
अपने हक का तिनका-तिनका,
सिमटा उनकी बाँहों में।।
लगे मुखौटे हैं मुख पर,पर,
हम उनको पहचान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।२।।

 

मिलकर देख लिया है हमने,
अपनों से,बेगानों से।
मुख पर मीठे बोल बोलते,
खल,कपटी,शैतानों से।।
अंत:करण भरा कालिख से,
बस उजले परिधान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।३।।

 

एक चले फूलों के पथ पर,
एक चले अंगारों में।
भारी भेद हुआ लगता है,
सुख-दुःख के बटवारों में।।
दुखिया की आँखों में आँसू,
सुखिया के घर गान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।४।।

 

ऐसा बोझ रखा है सर पर,
झुकती कमर कमानों सी।
पशुओं सा हाँका जाता है,
हैं देहें इन्सानों सी।।
चहुँदिश चीखों का आलम पर,
बंद किए वे कान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।५।।

 

बड़े जतन से लूट,कहे वह,
किस्मत तेरी फूटी रे।
भले-भले लगते हों मुखड़े,
नीयत मगर कलूटी रे।।
रहे कपट की कला सलामत,
बंगला आलीशान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।६।।

 

खुद भी बड़ा,बड़ों से यारा,
है पहचान कुकर्मी की।
मानवता क़दमों से रौंदी,
हद कर दी बेशर्मी की।।
कैसे,किस-किस को लूटा है,
निज की शान बखान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।७।।

 

ये भी खल है,वो भी खल है,
आपस में समझौते हैं।
हाल सरलता का ऐसा है,
खाली हाथ कठौते हैं।।
हैं वे ख़ूँ के प्यासे शैताँ,
कहने को इन्सान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।८।।

 

खुलकर साज विदेशी बाजे,
आग लगी अलगोजे में।
रातें आँखों में कटती हैं,
दिन कटते हैं रोज़े में।।
बचा खुचा खा लेंगे निर्बल,
पहले खा बलवान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।९।।

 

वे जब निकले घर से बाहर,
मुख पर कड़वी गाली ले।
गाली से जी नहीं भरा तो,
निकले हाथ दुनाली ले।।
मची रहे बस मारामारी,
नहीं जान में जान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।१०।।

 

तूती चहुँदिश बोल रही है,
बस नफ़रत के नारों की।
मेल जोल की कौन सुनेगा,
भीड़ खड़ी ख़ूँ-ख्वारों की।।
जब-जब उनकी बड़ी पिपासा,
अपनी ओर रुझान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।११।।

 

बच-बच के चलना नंगों से,
देंगे अड़ा अड़ंगा वे।
अगर उलझने की कोशिश की,
करवा देंगे दंगा वे।।
उनको नहीं नियम कुछ लगते,
हमको सभी विधान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।१२।।

 

वे फिरते हैं लिए पलीता,
आँखों में अंगारे हैं।
अपनी बस्ती घेर खड़े हैं,
वे हमको ललकारे हैं।।
जब-जब अपनी सुनी कराहें,
उनके मुख मुस्कान रहे।
धड़कन-धड़कन रही वेदना,
साँसों में श्मशान रहे।।१३।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध',

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