एक धर्म के ठेकेदार ने
दूसरे धर्म के ठेकेदार से कहा-
"दर्द नहीं जाता सहा,
बहुत बेचैन है मन
नीरस लगता है जीवन
मज़ा बिलकुल ही नहीं आ रहा।"
दूसरा बोला-
"यहाँ कौन सा सुकून है,
बहुत दिनों से देखी नहीं आगज़नी
देखा नहीं ख़ून है।
मन में है ताप ऐसा
ज्यों तपता मई-जून है।
बहुत दिनों से लोगों का
हा-हा कार नहीं सुना है।
दर्द-ए-दिल
हुआ जाता चौगुना है।"
पहले ने हामी भरी-
"हाँ भाई! सही कहते हो,
हमदर्द हो
मेरा दर्द तुम भी सहते हो।
अमन बड़ा डरावना लगता है,
धड़कनें तेज़ हो जाती हैं,
मन में भरा अवसाद है।
न कहीं दंगा,
न कहीं फ़साद है।
न खाने में
न पीने में कोई स्वाद है।"
दोनों के दिलों पर
दबाव डाल रही
शैतानी हवा थी।
दोनों का दर्द था एक सा
दोनों के दर्द-ए-दिल की
एक ही दवा थी।
दोनों ने हाथ मिलाए,
फिर दोनों गले मिले,
दोनों ने
याद किए सिकवे-गिले।
फिर दोनों ने
एक निश्चित फ़ासले पर खड़े होकर,
अपने-अपने धर्म पर
संकट की बात कही रो-रोकर।
दोनों ने अपनी-अपनी
मुट्ठियाँ भींचीं,
दोनों ने एक-दूसरे पर
गालियाँ उलीचीं।
प्रेस ने उन गलियों को
मुख्य पृष्ठों पर छापा।
दोनों के पालतू गुंडे
खो बैठे आपा।
अगले दिन
ख़ून-खराबा हो गया।
जन-साधारण का
चैन-ओ-अमन खो गया।
सैकड़ों घर जले
हज़ारों की अस्मत लुटी
चारों तरफ खौफ़ छा गया।
धर्म के ठेकेदारों को
मज़ा आ गया।
एक बंद कमरे में
उतार कर अपने-अपने कपड़े,
दोनों नाच रहे थे,
दोनों गा रहे थे।
गीत के बोल थे-
"आइए हम मजहबी जज़्बात से खेलें।
कुछ लोग तुम भी साथ ले लो,
कुछ लोग हम भी साथ ले लें।
मन में उनके ढेर सी नफ़रत उड़ेलें,
उन्माद में डूबे हुए हम काफिले लें।
फिर लड़ें आपस में हम कुछ इस तरह,
अपने-अपने साथियों को
मौत के मुँह में धकेलें।
आइए हम मजहबी जज़्बात से खेलें।"
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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