बस काम रहा हँसना, बेदर्द ज़माने का।
हर दर्द नहीं होता, दुनिया को सुनाने का।।
वो आग उगल जाता, हर बार यहाँ आकर।
आता न उसे करना, कुछ काम ठिकाने का।।
बस्ती पे नज़र उसकी, आँखों में चमक यारा।
है दिल में छुपा रक्खा, अरमान जलाने का।।
जो काम पड़ा तुझसे, पैरों से लिपट जाए।
इक बार निपट जाए, सूरत न दिखाने का।।
तुम याद उसे करना, पल भर में हुआ हाजिर।
कुछ दाम लगेगा बस, जयकार कराने का।।
शागिर्द गजब का है, बेजोड़ हुनर सीखा।
बस एक इशारे पर, कुहराम मचाने का।।
खोलेगा ज़ुबाँ अपनी, अपशब्द निकालेगा।
फिर 'सिद्ध' कहेगा वो,दिल से न लगाने का।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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