सहमी-सहमी हवा चले अब,
सहमी-सहमी साँस।
जाने कब हो कौन धमाका,
टूट गिरे विश्वास।।
सूरत इन्सानों के जैसी,
शैतानों से काम।
जनता को जब भी देते हैं,
दुख देते सुखराम।।१।।
भले-भले नामों के पीछे,
छुपे बड़े शैतान।
कालिख ही कालिख है मन में,
बस उजले परिधान।।
सिर्फ़ व्यथा जन-मन को देते,
हर्षद जिनके नाम।
जनता को जब भी देते हैं,
दुख देते सुखराम।।२।।
सभी नियम छोटों की खातिर,
छोटों को कानून।
बड़ों-बड़ों के लिए नियम ये,
होते हैं परचून।।
वे चाहें तो नंगा नाचें,
उन पर नहीं लगाम।
जनता को जब भी देते हैं,
दुख देते सुखराम।। ३।।
जो भी सुख-सुविधा है जग में,
खास-खास के पास।
आम आदमी को मिलता है,
खासों का परिहास।।
जनता जल बिन मीन सरीखी,
नेता पीते जाम।
जनता को जब भी देते हैं,
दुख देते सुखराम।। ४।।
हम-तुम फ़क़त खिलौने उनके,
और नहीं कुछ और।
जो चीखे तो हो जाएँगे,
उनके मुख के कौर।।
उनका राज,नीति उन ही की,
मोटी जिनकी चाम।
जनता को जब भी देते हैं,
दुख देते सुखराम।।५।।
बात सुनेंगे तो धन लेकर,
बोलेंगे धन हेतु।
उनसे मुलाकात तब ही हो,
जब हो धन का सेतु।।
सीख गए बातों की खाना,
बात-बात का दाम।
जनता को जब भी देते हैं,
दुख देते सुखराम।।६।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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