इक ग़ज़ल मैं इस ज़मीं की लिख रहा हूँ आसमाँ पर।
बात निकली है चलो देखें ठहरती है कहाँ पर।।
आप भी मेरी तरह गर टूट कर करते मुहब्बत।
इक कहानी और होती इस ज़माने की ज़ुबाँ पर।।
आज के इस नफ़रतों के दौर पर कल सब हँसेंगे।
वो कहेंगे- 'कैसे पागल लोग रहते थे यहाँ पर'।।
थी ख़ता इतनी कि उसको आईना दिखला दिया था।
फिर हुए ऐसे सितम शैतान के, बन आई जाँ पर।।
हर कली हर फूल झुलसा सा मिला मेरे लिए यूँ।
आग की बरसात जैसे हो गई हो गुलिस्ताँ पर।।
'सिद्ध' होगा वो हमारे बीच का ही शख़्स कोई।
रोज़ पत्थर फेंकता है रात को मेरे मकाँ पर।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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