(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
हसीं जो ख़्वाब है यूँ ही रहे वो जाग जाने तक।
रहे क़ायम बहारों का ये मौसम उनके आने तक।।
अगर रूठे हैं वो तो हम मनाने यार बैठे हैं।
मगर ये रूठना उनका रहे केवल मनाने तक।।
नज़र का तीर छोड़ा है निशाना साध के उसने।
अभी है राह में आने तो दो उसको निशाने तक।।
गया है छोड़ के वो एक जुमला बीच अपने यूँ।
करेगा याद उसको ये ज़माना इक ज़माने तक।।
शरारत कोई करवा दे न मुझसे बेख़ुदी मेरी।
कहीं पहुँचा न दे हम को हमारा यार थाने तक।।
यही कहता है फिर वो ज़िन्दगी ये बेमज़ा सी है।
मज़ा आता है ज़ालिम को फ़क़त हमको सताने तक।।
नहीं सूरत नज़र आती कि कैसे वक़्त को रोकूँ।
क़यामत 'सिद्ध' रुक जाए इनायत उनकी पाने तक।।
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