(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
नशा आँखों में बेहिसाब है कोई।
गुज़रा मुकाम आया कि ख़्वाब है कोई।।
छुपे चिहरे का तबस्सुम नज़र आए।
नक़ाब ऐसा कि बेनक़ाब है कोई।।
तिरी यादों ने यार बेख़ुदी दी है।
असर यूँ है कि हाँ शराब है कोई।।
तू तो तेरे सवालों सा रहा ज़ालिम।
यहाँ मैं हूँ कि लाज़वाब है कोई।।
सोचता हूँ कि सोचा हुआ सुन लेता है।
ऐसा मेरे जानिब ज़नाब है कोई।।
निगाहों में चमक आती तिरे आते।
शवाब ऐसा कि आफ़ताब है कोई।।
मुझको मेरी साँसों ने 'सिद्ध' बतलाया।
गुलिस्ताने-दिल में गुलाब है कोई।।
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY