(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
हम कभी उन के चहीते थे कहाँ।
और हम उलफ़त से रीते थे कहाँ।।
इक इशारे पर निकल कर आ गए।
ये छुपा रक्खे पलीते थे कहाँ।।
क्या कभी वो हाले-दिल जाने मिरा।
हम कहाँ मरते थे जीते थे कहाँ।।
याद जो दिन-रात आते ही रहे।
बीत के भी यार बीते थे कहाँ।।
'सिद्ध' कोई दूसरा ही था नशा।
हम कभी कुछ और पीते थे कहाँ।।
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