(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',
पहली नज़र में वो मुझे, लख्ते-जिगर लगा।
फिर मजहबी उन्माद में, नफ़रत का घर लगा।।
वो दूर है या पास है, कैसे करें पता।
इक पल लगा वो है इधर, दूजे उधर लगा।।
वो कायराना ढंग से, था लिप्त क़त्ल में।
मुझको नहीं है वो लगा, किसको निडर लगा।।
घर था किसी गरीब का, शैताँ की फौज थी।
झुलसा हुआ सा आग में, दीवारो-दर लगा।।
विष-बीज बोए खेत में, फसलें हरी हुईं।
फल की न बातें कीजिए, हासिल सिफर लगा।।
इन मतलबी होते गए, रिश्तों के दरम्यां।
अब मुल्क की तो छोड़िए, हर घर समर लगा।।
इंसानियत की राह में, जो है गुजर गया।
कुछ बात है कि 'सिद्ध' को, वो ही अमर लगा।।
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