(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',
ज्यादा की नहीं हसरत, बस एक सितारा हो।
लुटते हुए इन्साँ की, किस्मत जो सँवारा हो।।
गर तुम न खफ़ा हो तो, सह लेंगे जुदाई भी।
लेकिन जो खफ़ा हो तो, फिर कैसे गुजारा हो।।
हर शख़्स ने मुझको तो, मझधार में छोड़ा है।
मुख तुम ने जो मोड़ा तो, फिर कौन किनारा हो।।
बस एक ही मरहम है, बेचैन निगाहों की।
आ जाए वो लम्हा जब, इक उसका नज़ारा हो।।
हम अपनी शबे-ग़म की, किस-किस से करें चर्चा।
कोई भी नहीं ऐसा, तुम सा जो हमारा हो।।
ख़्वाबों में अरे मेरे, आ जाया करो हमदम।
दीवाने के दिल को अब, इतना तो सहारा हो।।
उस हुस्न के आशिक हैं, जिस हुस्न से लगता है।
फुर्सत से बनाया हो, जन्नत से उतारा हो।।
इस 'सिद्ध' की बस्ती के, दुख दर्द मिटाओ तो।
बस बात है इतनी सी, उलफ़त का इशारा हो।।
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