ज़िन्दगी का बोझ ढोता, हाँफता है आदमी।
देख सम्मुख मौत यारा, काँपता है आदमी।।
जिक्र करता हर किसी से, हर समय उपकार का।
जो किए अपकार उनको, ढाँपता है आदमी।।
प्रीत के साहित्य पर तो आग डाले आज भी।
द्वेष की बातें-किताबें, छापता है आदमी।।
आदमी के चेहरों की, भीड़ है तो सामने।
पर कहीं इन चेहरों में, लापता है आदमी।।
दोस्ती का हाथ बढ़ता है बहुत ही बाद में।
पहले तो संपन्नता को, मापता है आदमी।।
'सिद्ध' बढ़ता देखता जब, कोप यारा शीत का।
घर पड़ोसी का जला कर, तापता है आदमी।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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