Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जूझते जो धार से

 

(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',

 

 

वो समझते हैं कि अपने पाप धोते हैं।
पाप का सागर, लगाते रोज़ गोते हैं।।

 

क्या बताएँ हम अँधेरों का सवब साथी।
हम जगाते, वो मगर दिन-रात सोते हैं।।

 

ज़िन्दगी के अर्थ से अनभिज्ञ है जीवन।
वेद हैं कंठस्थ, ऐसे लोग तोते हैं।।

 

आदमी की आदमी पर आस्था के अब।
बीज लाखों में फ़क़त दो-चार बोते हैं।।

 

देखते लहरें खड़े हैं वो किनारे पर।
जूझते जो धार से, वो पार होते हैं।।

 

कब कहाँ बदलाव रोने से हुआ कोई।
नासमझ हैं, 'सिद्ध' वो बेकार रोते हैं।।

 

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