Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कहाँ ठहरे

 

बात ठहरे तो कहाँ ठहरे।
वो अगर हैं बेज़ुबाँ ठहरे।।

 

ख़ूब से ख़ूबतर खड़े पुतले ।
नज़र फिर-फिर तिरी दुकाँ ठहरे।।

 

हम चले तो चले चाँद-सूरज ।
और ठहरे तो आसमाँ ठहरे।।

 

सिर्फ़ पानी ही वो नहीं लाए।
ले के सर पे वो बिजलियाँ ठहरे।।

 

बह चले महल और हवेलियाँ ।
अपने माटी के मकाँ ठहरे ।।

 

ख़ुद को महफ़ूज समझे हैं वो ।
जा के जो ऊँचे मचाँ ठहरे ।।

 

उसे देखा कि क़शमक़श ऐसी ।
साँस ठहरे कि मिरी जाँ ठहरे।।

 

पुर असर मुस्कान फिर देखी ।
फिर नज़र के इम्तिहाँ ठहरे।।

 

चल दिए वो रूठ के उठ के ।
रह गए पाँव के निशाँ ठहरे ।।

 

दे असर आवाज़ में कि सुन के।
वक़्त और आबे-रवाँ ठहरे ।।

 

मिरी ख़ुशबू का असर ये है।
ठहर-ठहर के बागवाँ ठहरे।।

 

अपनी तरफ नोंक तीरों की ।
उनकी आँखों में कमाँ ठहरे ।।

 

हमें टुकड़ों में देखना चाहें ।
लिए कुछ लोग आरियाँ ठहरे।।

 

ख़ुशनुमा है और दिलकश है।
देख मंज़र ये महरबाँ ठहरे।।

 

धूल उड़ती है नज़र तर है।
मगर उसका न कारवाँ ठहरे।।

 

चलो तैयार हम भी हो जाएं।
वो किए तैयारियाँ ठहरे ।।

 

बात कुछ और ही कुछ और है।
बेसवब कौन है यहाँ ठहरे ।।

 

वो झुकें तो सबको हैरत हो।
मालूम है कि बदगुमाँ ठहरे।।

 

लोग कहते हैं हवा उनकी ।
साँस अपनी भी कहाँ ठहरे।।

 

खड़े देखो वो पास फूलों के ।
देखने लेकिन वो तितलियाँ ठहरे।।

 

आगे नज़र आएँगे शोले ।
ज़रा ठहरो कि ये धुआँ ठहरे।।

 

पहले दिल फिर जिस्म सारा ।
हुए पत्थर के जो इन्साँ ठहरे।।

 

हो के जो नज़र नहीं आती।
अब न दीवार दरमियाँ ठहरे।।

 

किए हैं ख़ूब सितम सालों ने ।
हम तो फिर भी हैं जवाँ ठहरे।।

 

यकीं होता तो भला कैसे ।
जुमलेबाजों के बयाँ ठहरे ।।

 

मौसमे-बहार याद आता है ।
देखें कब तक ये खिजाँ ठहरे।।

 

वही घर है वही दुनिया है ।
'सिद्ध'जब और जहाँ ठहरे।।

 

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

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