Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

ख़त मिला अपना मुझे

 

(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',

 

 

टूटता सा दिल लगा, फिर टूटता सपना मुझे।
लौट कर इक रोज़ यारा, ख़त मिला अपना मुझे।।

 

 

याद मैं उसको रखूँ , ये आरज़ू थी यार की।
इसलिए ही दे गया है, जख़्म वो गहरा मुझे।।

 

 

इक हथेली दिल रखा था, इक हथेली जान थी।
देखिए उस नासमझ ने, कुछ नहीं समझा मुझे।।

 

 

मैं, मिरी शर्मिन्दगी अब, सोचता हूँ क्या कहूँ।
थे चमन में गुल कई पर, आपने देखा मुझे।।

 

 

'सिद्ध' सब को जान से, प्यारी लगीं आज़ादियाँ।
रास आता किस लिए ये, आपका पहरा मुझे।।

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ