Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ख़ुद को

 

बस मतवाला किया है ख़द को।
मधु का प्याला किया है ख़ुद को।।

 

उसकी रंगत रहे सलामत।
धूप में काला किया है ख़ुद को।।

 

शैताँ रूठा, बला से मेरी।
नहीं निवाला किया है ख़ुद को।।

 

ज़िद है दीपक कहलाने की।
फ़कत उजाला किया है ख़ुद को।।

 

नख-शिख जलनखोर जलता है।
दहकता छाला किया है ख़ुद को।।

 

अपना चैन न उसको भाया।
देखा ! भाला किया है ख़ुद को।।

 

'सिद्ध' बढ़ी जब चाहत हद से।
तो वर-माला किया है ख़ुद को।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

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