क्यों दर्द अपना तू यहाँ सबको सुनाए है।
जब गैर से ज़्यादा यहाँ अपना सताए है।।
हालात ने करवाई है चोरों की चाकरी।
इक दर्द है जो रात की नींदें चुराए है।।
इस दौर-ए-दस्तूर-ए-जफ़ा में यार सुन।
नाहक वफ़ा के वास्ते आँखें बिछाए है।।
ये बुत बहुत मजबूर है किसको पुकारता।
ये है यहाँ ठहरा हुआ, उठ के न जाए है।।
इक रोज़ पर्दा हट गया दिल के फ़रेब से।
उस रोज़ से ज़ालिम हमें खुल के सताए है।।
जब वक़्त था,तब तो रहा अपनी ही मौज में।
अब वक़्त बीते पर खड़ा आँसू बहाए है।।
जब-जब दिखाया आईना उसके लिए हम ने।
तब-तब हमें वो भी यहाँ में ख़ंजर दिखाए है।।
यूँ झूठ की मिठास ने आगोश में लिया।
अब 'सिद्ध' कोई सच को ना अपना बनाए है।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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