उनको होना चाहिए था,वो मगर क्यों ना हुए।
हम भी उड़ना चाहते हैं,अपने पर क्यों ना हुए।।
बेख़बर मिलता कोई तो,वो बनाते बेवकूफ़ ।
बाख़बर मिलता तो कहते,बेख़बर क्यों ना हुए।।
फैली जब-जब आग नफ़रत की,तो इनके घर जले।
पर कभी लपटों की जद में,उनके घर क्यों ना हुए।।
शैतानियत का हर हुनर,अब सीखने की होड़ है।
इन्सान में इन्सानियत के,कुछ हुनर क्यों ना हुए।।
भरपूर होता दिख रहा है, हर बुराई का असर।
नेक बातें भी हैं पर,उनके असर क्यों ना हुए।।
जो ज़माने को कुचलने की लिए हसरत खड़े हैं।
इस समय की ओखली में,उनके सर क्यों ना हुए।।
इसको जाना था जहाँ,उसको भी जाना वहीं था।
एक थी मंज़िल तो फिर,वो हमसफर क्यों ना हुए।।
'सिद्ध' ये चक्का समय का,बिन थमे चलता निरन्तर।
थे उस पहर जो-जो मजे,वो इस पहर क्यों ना हुए।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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