(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
लगाया दाँव पर दिल को जुआरी है।
मगर हारा कि दिल क्या, जान हारी है।
पयामे-यार आना था नहीं आया,
कहें किस से कि कितनी बेकरारी है।
कभी इक पल नज़र थी जाम पर डाली,
अभी तक, मुद्दतें गुजरीं, खुमारी है।
तलाशें क्यों कहीं अब दूसरा दुश्मन,
हमारी जब हमीं से जंग जारी है।
कहा इक नासमझ ने आज ये सब से,
समझ में आ गई अब बात सारी है।
मुखातिब है ज़माने की हँसी से यूँ,
कभी सहमी नहीं ईमानदारी है।
मेरी मौज़ूदगी में चुप खड़े थे सब,
चला आया कि फिर चर्चा हमारी है।
लगे कैसे नहीं तीखी ज़माने को,
अजी ये 'सिद्ध' की नगमा निगारी है।
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