लुत्फ़-ए-मोहब्बत छोड़कर,नफ़रत की राहों पर चले।
जाने ये कैसे लोग हैं,ले-ले के जो ख़ंजर चले।।
देखकर इन्सान को तो,ख़ूब वे गर्जन किए।
सामने शैतान आया,सर झुका,झुक कर चले।।
एक पग इन्सानियत की राह पर ना रख सके।
हैवानियत की राह पर,वे जब चले,जी भर चले।।
अब दिलों में नफ़रतों के,भाव हैं घर कर गए।
भाव सब इन्सानियत के, अब दिलों से मर चले।।
अलहदा थी दुश्मनों की बात लेकिन देखिएगा।
तीर जो अपनों ने ताने,वो भी कहाँ कमतर चले।।
वो किनारे हो लिए,सिर्फ़ इतना बोलकर।
मैं चलूँ अंगार पर,साथ वो भी गर चले।।
'सिद्ध' उनकी बात तो,सिर्फ़ कहने भर की थी।
मैं ये बोला-चल चलें, लेकर वो अपने घर चले।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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