(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
नग्नता के नाग से, वे नग्नता को ढक रहे हैं।
सच कहा जिस ने उसी को गालियाँ वे बक रहे हैं।।
हो गया कंठस्थ जिस-जिस को जुगाड़ों का पहाड़ा।
आज के इस दौर में तो, बस वही लायक रहे हैं।।
क्या नियम, कानून क्या है, जब पहुँच-पहचान उनकी।
क्या ग़लत है, क्या सही, सब काज उनके धक रहे हैं।।
काज काले देख उनके, थक चली आँखें हमारीं।
काज काले से मगर वो तो तनिक ना थक रहे हैं।।
है तिलक-माला, दुशाला धर्म का भी साथ लेकिन।
भेद का विष बो रहे वो, पाप उनके पक रहे हैं।।
कोई बेशक स्वार्थ होगा, जा रहे जो आज घर-घर।
लूट के ही काज में, संलग्न जो अब तक रहे हैं।।
'सिद्ध' वे इन्सान को, समझा किए हैं पालतू सा।
क़ैद उनकी कोठियों में, आदमी के हक़ रहे हैं।।
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