ठाकुर दास 'सिद्ध'
रोशनी चाँद से होती थी,
होती थी सितारों से भी।
टिमटिमाते तारों की
इतनी नहीं थी रोशनी
कि दिखा सके
अपने आस-पास की दुनिया।
बस एक था ऐसा तारा,
निकटतम तम हरता तारा,
जिसे हम सूरज कहते हैं।
सूरज और चाँद की रोशनी के
अपने-अपने समय थे,
युग था आदिम
आग थी
तो आग के साथ-साथ
आग के भय थे।
बार-बार आ ही जाती थी
काली रात अमावस की,
और बिछा ही जाती थी
चहुँदिश चादर तमस की।
आग तो थी
पर आग पर
वश नहीं था मानव का,
बार-बार
आ ही जाता था समय
तम से पराभव का।
एक लंबा युग बीता
अंधकार में
तब मानव ने आग को जाना,
और उसने पाया
तब ही
अपनी रोशनी का अनमोल खजाना।
मानव के पास अब
एक नई आग थी,
आतंकित करती
जंगल की आग नहीं,
आनंदित करती
मंगल की आग।
अमावस की काली रात को
उजला किया मानव ने,
मानव ने मनाया
अंधकार पर विजय का पर्व,
तन गए सीने से
झाँकने लगा गर्व।
आग का अस्तित्व तो
पहले भी था लेकिन
जब मानव के कर-कमलों से
पहली आग जली थी,
वही पहली दीपावली थी।
इससे पहले
रोशनी के साथ-साथ
ज़िन्दगी चलती थी,
ये बड़ी और अनूठी घटना थी
जब ज़िन्दगी के साथ-साथ
रोशनी चली थी।
ये और बात है कि
तब दीपों का अस्तित्व नहीं था
लेकिन
जब आदिम युग से निकली
सभ्यता की गली थी,
जब ज़िन्दगी के साथ-साथ
रोशनी चली थी,
जी हाँ, वही था पहला प्रकाश-पर्व,
जी हाँ, वही पहली दीपावली थी।
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