Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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परी और पत्नी

 

उड़ती हुई आई एक तितली
और आकर बैठ गई
मेरे हाथ पर।

 

मैंने अपनी पलकों को झपकाया
फिर देखा तो पाया
कि तितली तब्दील हो गई है
एक परी में।

 

एक परी
जिसके पंख हैं तितली जैसे
लेकिन बड़े-बड़े।

 

एक परी
जो चूम रही है मेरा हाथ।

 

चूमकर मेरा हाथ
अपना सर उठाया परी ने
तो नज़र आया उसका चेहरा।

 

उसका चेहरा
जो मेरी पत्नी का चेहरा था।

 

वह मुस्कुराई
तो मुस्कुरा दिया मैं भी।

 

मैंने देखा
कि उसके हाथ में एक छड़ी है,
जादू की छड़ी।

 

उसने घुमाई जादू की छड़ी,
मैं ये नहीं बतला सकता
कि उस जादू की छड़ी से
क्या जादू हुआ,
क्योंकि घुमाते ही जादू की छड़ी
खुल गईं मेरी आँखें।

 

या बात को कहा जा सकता है यूँ भी
कि उस जादू की छड़ी से
यही जादू हुआ
कि खुल गईं मेरी आँखें।

 

जहाँ तक स्वप्न के टूटने की बात है
यह तो हर स्वप्न की
अनिवार्य नियति है।

 

हमें हर स्वप्न के बाद
लौटकर आना ही होता है
यथार्थ के धरातल पर।

 

मैं सोचता हूँ
खड़े होकर यथार्थ के धरातल पर
कि क्या फ़र्क़ है
परी और पत्नी में।

 

मुझे लगता है
कि परी और पत्नी में
तीन फ़र्क़ हैं।

 

पहला फ़र्क़ ये
कि परी के होते हैं पंख,
पत्नी के पंख नहीं होते।

 

दूसरा फ़र्क़ ये
कि परी के पास होती है
जादू की छड़ी,
पत्नी के पास नहीं होती
ऐसी कोई छड़ी।

 

तीसरा फ़र्क़ बहुत बड़ा है,
पिछले दोनों फ़र्क़ों से बड़ा।

 

तीसरा फ़र्क़ ये
कि बावजूद इसके
कि परी के पास होते हैं पंख,
कि परी के पास होती है जादू की छड़ी,
परी नहीं लाँघ सकती
स्वप्न-लोक की सीमा,
परी नहीं आ सकती
यथार्थ के धरातल पर।

 

बावजूद इसके
कि पत्नी के पास नहीं होते पंख,
बावजूद इसके
कि पत्नी के पास नहीं होती
जादू की छड़ी,
पत्नी हो सकती है
हमारे स्वप्न-लोक में हमारे साथ,
जैसे यथार्थ के धरातल पर।

 

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