पहले घर-आँगन को हड़पा, लूट लिया फिर थाली-लोटा ।
जनता के हक़ छीन-छीन कर, सजा लिया अपना परकोटा।।
हा-हा कार मचाती जनता,
बोल रही नेता की तूती ।
जनता ज़मींदोज हो तो हो,
निधि प्रतिनिधि की अम्बर छूती।
नेता की नज़रों में जनता,
एक वोट है, या फिर जूती।।
अपनी चिंता से ही उसको, शेष नहीं अवकाश ज़रा भी,
जनता की क्या चिंता करता, उसको बहुत समय का टोटा।
जनता के हक़ छीन-छीन कर, सजा लिया अपना परकोटा।।
सत्ता के वैभव को भोगे,
भूल गया वो सारे वादे ।
उसके रिश्तेदार हुए हैं,
पलक झपकते साहबजादे।
किसकी चीखों में इतना दम,
जो वादों की याद दिला दे।।
बड़ों-बड़ों से मिलता-जुलता, बड़ी-बड़ी करता है बातें,
दरवानों को मिली हिदायत, घुस ना पाए कोई छोटा ।
जनता के हक़ छीन-छीन कर, सजा लिया अपना परकोटा।।
मुख पर लगा मुखौटे आया,
छल से अपना मत ले भागा।
ऐसा कुर्सी पर जा सोया,
पाँच बरस में ही वो जागा ।
वह बदले तो कैसे बदले,
बोलो-श्वेत हुआ कब कागा।।
निरख-निरख कर नेता का सच, जनता अपना पीट रही सर,
जिसको खरा समझ बैठे थे, वह नख-शिख निकला है खोटा।
जनता के हक़ छीन-छीन कर, सजा लिया अपना परकोटा।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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