साथ जिनके थी सरलता,लुट गए बेजान से फिरते।
वो बजाते गाल हर दम,और ये नादान से फिरते।।
भाल पर चंदन मले हैं,पाप में आकंठ डूबे जो।
लोग ऐसे सैकड़ों हैं,तान सीना शान से फिरते।।
बात थी ईमान सी नाचीज़ को ही,बेच देने की।
घर भरा होता तुम्हारा,और तुम धनवान से फिरते।।
भीड़ होती साथ जो,जयकार करती नाम का तेरे।
गर उसूलों को जलाते,तुम अगर ईमान से फिरते।।
गर हुनर तुम सीख लेते दूसरों को लूट लेने का।
ना घिसटती ज़िन्दगी यूँ ,तुम स्वयं के यान से फिरते।।
यार कोई गर मदद की,चाह लेकर पास में आता।
ना उसे पहचानते तुम,बेझिझक पहचान से फिरते।।
एक और इन्सान का,हैवान होना देख कर यारो।
फ़र्क़ ना पड़ता किसी को, 'सिद्ध' ही हैरान से फिरते।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY