(सार छंद)
मन का मैल नहीं धोता रे,
गंगा में गोता रे।
गली-गली में लगा रहा है,
तू नफ़रत के नारे।।
लूट कर्म में लीन रहा है,
कौन धरम तू धारे।
कहत 'सिद्ध' क्यों हुए न्यारे,
भाई हैं हम सारे।।
मन का मैल नहीं धोता रे।
गंगा में गोता रे।।१।।
तू ने नहीं बोलना जानी,
प्रीत-प्यार की बानी।
नफ़रत की बातें करता है,
तेरी कपट कहानी।।
सुनकर ये जग जब थूकेगा,
क्या रह जाए पानी।
कहत 'सिद्ध' मत कर मनमानी,
मत बन तू अभिमानी।।
तू ने नहीं बोलना जानी।
प्रीत-प्यार की बानी।।२।।
जेबों में बारूदी गोले,
जात-धरम के चोले।
बोल सदा नफ़रत के बोले,
तुमने जब मुख खोले।।
बना रहा है रे मूरख तू,
छोटे-छोटे टोले।
कहत 'सिद्ध' सँग उसके हो ले,
प्रीत-पताका जो ले।।
जेबों में बारूदी गोले।
जात-धरम के चोले।।३।।
चिंतन पर जड़ता की कारा,
परंपरा का मारा।
अपने संग बहा ले जाए,
तुझको जग की धारा।।
कंठ लगाकर कायरता को,
बन बैठा बेचारा।
कहत 'सिद्ध' धारा से हारा,
पाता नहीं किनारा।।
चिंतन पर जड़ता की कारा।
परंपरा का मारा।।४।।
चहुँदिश लूट कपट छल छाया,
ये कैसा युग आया।
मानवता का मुखड़ा दीखे,
मुरझाया-मुरझाया।।
स्वारथ अमर-बेल सा फैला,
अपना हुआ पराया।
कहत 'सिद्ध' तू क्यों बौराया,
क्यों उत्पात मचाया।।
चहुँदिश लूट कपट छल छाया।
ये कैसा युग आया।।५।।
तुझको जाना पड़े अकेला,
चला-चली की बेला।
साथ नहीं जाएगा तेरे,
लगा हुआ ये मेला।।
हिय में अहं अकारथ पाले,
बना फिरे अलबेला।
कहत 'सिद्ध' जग समझ झमेला,
खेल न हिल-मिल खेला।।
तुझको जाना पड़े अकेला।
चला-चली की बेला।।६।।
है अँधियारा दीप जला ले,
गीत प्रीत के गा ले।
जात-धरम के क्यों झगड़े हैं,
मानव धरम निभा ले।।
बैर-भाव तज मानवता को,
अपना धरम बना ले।
कहत 'सिद्ध' सद्भाव जगा ले,
हिरदे बीच बसा ले।।
है अँधियारा दीप जला ले।
गीत प्रीत के गा ले।।७।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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