(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',
घुट-घुट के कभी मरना, सीखा ही नहीं हमने।
थम-थम के कभी चलना, सीखा ही नहीं हमने।।
पसीने का नमक हमने, खाया है हमेशा ही।
औरों के तले पलना, सीखा ही नहीं हमने।।
हम उनकी लड़ाई में, शामिल हों भला कैसे।
नेता की तरह छलना, सीखा ही नहीं हमने।।
नाहक अरे ये शोले, तुम हम पे गिराते हो।
जीवन में कभी जलना, सीखा ही नहीं हमने।।
अपने लहु का हमने, है रंग जब से जाना।
दुनिया के रंग में रंगना, सीखा ही नहीं हमने।।
माना कि मिलावट है, हर चीज में दुनिया की।
मिसरी मिला के कहना, सीखा ही नहीं हमने।।
पग-पग पे बिछे काँटे, कुचले हैं मेरे पग ने।
रोना और हाथ मलना, सीखा ही नहीं हमने।।
गर 'सिद्ध' की डगर ये, भाए तो चले आना।
औरों की डगर चलना, सीखा ही नहीं हमने।।
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