जब कभी वो सामने आए, छले हैं।
मैल मन में, देह पर चंदन मले हैं।।
ताक पर नैतिक तकाजे रख दिए वो।
आज देखो, बेचने ईमाँ चले हैं।।
हों भले ही, ये जरूरी तो नहीं है।
वो भले ही, शक्ल-ओ-सूरत से भले हैं।।
आग नफ़रत की लगाई जो खलों ने।
घर हमेशा, बस हमारे ही जले हैं।।
वो कभी जो ख़्वाब अपनी आँख के थे।
आज सब शैतान के पैरों तले हैं।।
खोट के पुतले हुए इन्सान जो-जो।
खल अरे वो 'सिद्ध' को बेहद खले हैं।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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