तन भले उजले बहुत हों, पर यहाँ पर कौन मन काला नहीं।
भ्रष्ट हो तो चाहने वाले हैं वर्ना, पूछने वाला नहीं।।
अपने नख को कर रहा है आज क्यों कर आदमी पैना यहाँ।
आज-कल क्या आदमी ने आदमीयत को मिटा डाला नहीं।।
ज़िन्दगी का है सफ़र यूँ, राह में अंगार हैं दहके हुए।
वो तो कोई ख़ास होगा, पैर में जिसके कोई छाला नहीं।।
हमने सौंपा इक अमानत की तरह, ये मुल्क जिसके हाथ में।
मतलबी था, था लुटेरा, चोर था वह, कोई रखवाला नहीं।।
स्वार्थ गर पूरा न हो तो, छोड़ दे वह, तोड़ दे नाते सभी।
देखता भाई नहीं, बेटा नहीं, बीबी नहीं, साला नहीं।।
दर्द क्या जाने किसी का, जो सुमन की सेज सोया उम्र भर।
और यारो एक पल भी दर्द से जिसका पड़ा पाला नहीं।।
सच कहा था इसलिए ही सुनके उसने अनसुनी की फिर यहाँ।
क्या कहें अब, झूठ के इस दौर में कब सच गया टाला नहीं।।
टूटता ना सिलसिला ऐ 'सिद्ध' ख़ासों के सितम का, जुल्म का।
आम जन की है ज़ुबाँ पर जो लगा, वह टूटता ताला नहीं।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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