(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
थी मालिक की जात अलग, मजदूर अलग थे।
भूख अलग थी,प्यास अलग, नासूर अलग थे।।
हमने बाँधी थी उन से, उम्मीद वफ़ा की।
लेकिन उनकी दुनिया के, दस्तूर अलग थे।।
क्या बतलाएँ मन मिलता तो क्या-क्या मिलता।
अलगोजे की तान अलग, संतूर अलग थे।।
पुख़्ता नफ़रत की यारा, दीवार खड़ी थी।
बेचारे बेनूर अलग, बानूर अलग थे।।
गोल-गोल था दोनों का आकार एक सा।
था अंतर पर, बेर अलग, अंगूर अलग थे।।
'सिद्ध' अगर समझाते तो क्या-क्या और किसे।
नादान अलग, और यहाँ मगरूर अलग थे।।
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