Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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उड़ता पंछी पंख पसारे

 

चोंच मारकर चुग लेता है,
वह अपने आँगन के दाने।
धरती उसकी,अम्बर उसका,
वह दुनिया को अपना जाने।।
पर्वत लांघे,सागर लांघे,
कभी नहीं वह हिम्मत हारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।१।।

 

डाल-डाल से,पात-पात से,
वह नित करता है अठखेली।
जोड़-जोड़ कर तिनका-तिनका,
लेता अपनी बना हवेली।।
कानों को भाता मनभावन,
गान सुनाता उठ भिनसारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।२।।

 

फल पर हक़ है,हक़ फूलों पर,
वह अपनी मर्जी का राजा।
नहीं जमा करके कुछ रखता,
नित करता है भोजन ताजा।।
याचक बनकर भीख माँगने,
जाता नहीं किसी के द्वारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।३।।

 

उसके तन पर वसन नहीं हैं,
सर्दी-गर्मी-वर्षा झेले।
उसे तेल ना साबुन लगता,
रोज़ धूल-माटी में खेले।।
फिर भी वह सुन्दर दिखाता है,
बिन दर्पण में रूप निखारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।४।।

 

ना वह हिन्दू ,ना वह मुस्लिम,
एक बराबर काबा-काशी।
वह सादा जीवन जीता है,
जैसे हो कोई संन्यासी।।
तिनकों की कुटिया में अपनी,
रैन,चैन से रोज़ गुजारे।
उड़ता पंछी पंख पसारे।।५।।

 

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

 

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