Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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उस छोर तक हम जाएँगे

 

ज़िन्दगी दर-दर भटकती, खोजती मुस्कान को।
कर दिया है मतलबी, इस वक़्त ने इन्सान को।।

 

कुछ शैतानों की हुकूमत, इस शहर में चल रही।
छोड़ दे तू ये शहर, या मार दे शैतान को।।

 

छोड़कर सद्भाव उसने, सीख ली हैं नफ़रतें।
ढो रहा है आदमी अब, बेतुके अभिमान को।।

 

रोज़ रचते वो कपट के, व्यूह अपने आस-पास।
मैल मन में है मगर, वह धो रहे परिधान को।।

 

नग्नता के हो गए हैं, वो पुजारी आज-कल।
किस तरह पहचानिए, वो खो चुके पहचान को।।

 

इंसानियत का ले ध्वज, उस छोर तक हम जाएँगे।
वो कुचल ना पाएँगे, इस 'सिद्ध' के अभियान को।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

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