"अरे मित्र,
बहुत दिनों बाद दिखे !
कहाँ थे ?"
"मैं गया था
पृथ्वी की सैर पर,
अभी-अभी लौटा हूँ।"
"कहाँ है पृथ्वी ?"
"पास ही
कुछ सौ प्रकाश-वर्षों की
थोड़ी सी दूरी पर।"
"कैसी है पृथ्वी ?"
"है का तो पता नहीं
पर जब देखी थी
तब हरी-भरी थी।
लोगों के हाथों में
थीं आरियाँ
इसलिए डरी-डरी थी।
हो सकता है
जहाँ मैंने देखा था
नाचता हुआ मोर,
वहाँ अब नाइट-क्लब हो,
जहाँ नाचते हों
इन्सान नाम के प्राणी
अपना नंगा नाच,
और पृथ्वी पर मोर
कहीं भी नहीं हो।
जहाँ मैंने देखा था
एक शेर को
एक हिरण का करते शिकार,
वहाँ इन्सान करते हों शिकार
परस्पर एक-दूसरे का।
शेर और हिरण का
मिट चुका हो अस्तित्व।
अब का तो पता नहीं
पर
वह तब बहुत सुन्दर थी,
जब मैंने देखी थी पृथ्वी।"
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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