Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वक़्त की ये मार

 

आत्माएँ देह सी जलने लगीं।
बस्तियों में कश्तियाँ चलने लगीं।।
आँसुओं की धार रोके ना रुके।
वक़्त की ये मार रोके ना रुके।।१।।

 

ये ज़माना देखता है, दंग है।
और है तू,और मैं,की जंग है।।
और ये तकरार रोके ना रुके।
वक़्त की ये मार रोके ना रुके।।२।।

 

हादसों का देखिए अंबार है।
जीत जाता झूठ बारम्बार है।।
और सच की हार रोके ना रुके।
वक़्त की ये मार रोके ना रुके।।३।।

 

देख के रफ्तार मुझको यूँ लगा।
दे दिया है ब्रेक ने शायद दगा।।
भागती है कार रोके ना रुके।
वक़्त की ये मार रोके ना रुके।।४।।

 

टूटता मैं, टूटते विश्वास थे।
जो गिरा तो गैर अपने पास थे।।
और अपने यार रोके ना रुके।
वक़्त की ये मार रोके ना रुके।।५।।

 

चोट ऐसी आज है मस्तक लगी।
'सिद्ध' होने मौत की दस्तक लगी।।
ज़िन्दगी दिन चार रोके ना रुके।
वक़्त की ये मार रोके ना रुके।।६।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध',

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