Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वेदना ढोता हुआ जन-जन फिरे

 

वेदना ढोता हुआ जन-जन फिरे।
सेठ हँसते, रो रहा निर्धन फिरे।।

 

आग का इक दौर गुजरा पास से।
खोजता माँ-बाप को, बचपन फिरे।।

 

आदमी को मार डाला आप ने।
पत्थरों में खोजते धड़कन फिरे।।

 

मन विकारों का पुलिंदा ही रहा।
देह पर पोते हुए चंदन फिरे।।

 

वह हमें देता रहा है गालियाँ।
नोंचता अपना वो अपनापन फिरे।।

 

हाथ में पत्थर लिए इक भीड़ है।
'सिद्ध' लेकर हाथ में दर्पण फिरे।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

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