(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
तितलियों के सँग महकती रातरानी याद आई।
आज फिर से कुछ लड़कपन, कुछ जवानी याद आई।
एक पल को ही थमा मैं, जब किसी भी छाँव पर तो,
दूसरे पल ही हमें अपनी रवानी याद आई।
आसमाँ से बादलों ने जो ज़रा फौहार छोड़ी,
भीगते ही, एक भूली सी कहानी याद आई।
आत्माएँ दो, नहाई थीं कभी जिस रोशनी में,
फिर वही इक कौंध हमको आसमानी याद आई।
गाँव में था घर हमारा ही हमारी राजधानी,
वो अमन की, चैन की वो, राजधानी याद आई।
आईने में चेहरे की झुर्रियों को देखकर ही,
जो सुनाती थी कहानी, आज नानी याद आई।
'सिद्ध' यूँ तो ज़िन्दगी उपहार से कुछ कम नहीं थी,
यार लेकिन, यार की हम को निशानी याद आई।
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