(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',
यादों के मक़बरे में, हैं मक़बरों की यादें।
पत्थर के दिल में जैसे, हों पत्थरों की यादें।।
वीरान हो गई है, बस्ती की हस्ती यारो।
बाकी बचीं हैं केवल, उजड़े घरों की यादें।।
हँसते नहीं हैं गुल अब, दिल भी उदास रहता।
चुभती हैं ख़ार बनकर, इन मंजरों की यादें।।
राहों में पड़े छींटे, जो आदमी के ख़ूँ के।
देखे तो आ गई हैं, फिर खंजरों की यादें।।
यह दौर नफ़रतों का, जिसने किया है पुख़्ता।
नफ़रत के साथ आती, उन रहबरों की यादें।।
अब अमन का नज़ारा, जैसे हो ख़्वाब कोई।
आती हैं अब जेहन में, फ़ितनागरों की यादें।।
यादों के समन्दर में, तूफ़ाँ सा आ गया है।
डूबी हैं 'सिद्ध' इसमें, सब दिलवरों की यादें।।
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY