स्वारथ के दलदल में चहुँदिश,मेरे-मेरे की ही रट है।
लेश मात्र भी प्रीत नहीं है,मन के घट में कड़वाहट है।।
भूखे-नंगे श्वान सरीखे,मरते हैं तो मर जाने दो।
वाहन धन वालों का लेकिन,दौड़ लगाता नित सरपट है।।
मानवता से नाता तोड़ा,हम हिन्दू-मुस्लिम बन बैठे।
गाँव-गाँव में,गली-गली में,मंदिर-मस्जिद की खटपट है।।
हँसते महल,झोपड़े जलते,आहत होती है मानवता।
रक्त-पिपासु बनी दानवता,नित पीती रक्त गटागट है।।
जो श्रम करते,भूखे मरते,मिलता नहीं निवाला सूखा।
भोग रहा वह वैभव सारे,रहा जन्म से जो लंपट है।।
क़दम-क़दम बारूद बिछी है,हाथ-हाथ में है चिंगारी।
तुझ पर है,या मुझ पर है,या देश समूचे पर संकट है।।
जब-जब भी पर्दा उठता है,देश समूचा भय से कंपित।
कहे 'सिद्ध' यह कैसा नाटक,नंगा नाच दिखाता नट है।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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