डूबिए कि वेदना का है ये सागर ऐ सनम ।
आज तुमको लग रहा किस बात का डर ऐ सनम।।
वह सरल था देखिए उस की सरलता का असर।
आदमी है हो गया वो आज बेघर ऐ सनम।।
जिसकी खातिर हर क़दम खेला किए हम जान पर।
वो दिखाता है हमें ललकार ख़ंजर ऐ सनम।।
दरम्याँ मतलब परस्ती का हुआ है अंकुरण ।
पड़ गए संवेदना के मंद से स्वर ऐ सनम ।।
माना परदे में अभी काली हक़ीक़त है छुपी।
क्या करोगे सामने वो आ गई गर ऐ सनम।।
जा रहा हूँ दूर तुझसे मैं हमेशा के लिए।
रुक ठहर कि देख लूँ मैं तुझको जी भर ऐ सनम।।
उसने पूछा क्यों नहीं लिखते ग़ज़ल श्रृंगार की।
मैं ये बोला-पहले मुझसे प्यार तो कर ऐ सनम।।
'सिद्घ' जो भी गुल हैं वो सब सेज पर हैं खास की।
और अपनी कट रही है खार ही पर ऐ सनम।।
ठाकुर दास 'सिद्घ'
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