तेरी चाहत चमकती है, मेरे रुख़ पर मेरा क्या है।
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर माजरा क्या है।
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यहाँ हर मील के पत्थर पे लिख दी आरज़ू तेरी,
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर रास्ता क्या है।
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नज़र तुझ से मिला के देख मैंने मूँद लीं आँखें,
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर वास्ता क्या है।
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मेरे लिक्खे पे तुम लिक्खो, मुकम्मल बात होगी तब,
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर फ़लसफ़ा क्या है।
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लिखा क्या है कि लिख कर तोड़ दी उसने क़लम अपनी,
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर को सज़ा क्या है।
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गए थे किस इरादे से, मिला है क्या वहाँ हम को,
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर ये हुआ क्या है।
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बहुत है फ़ासला लेकिन, महक तेरी चली आई,
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर फ़ासला क्या है।
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अगर है ‘सिद्ध’ उसको देख दिल पर बेख़ुदी छाई,
न पूछो अब मेरे हमदम, कि आख़िर वो ख़ुदा क्या है।
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– ठाकुर दास ‘सिद्ध’
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