मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही कि विद्वत्ता के रणभूमि भारत के विद्वान
आखिर क्यूँ आरक्छण के नाम पर वहीं पचास साल पुराना किस्सा दोहराते है!
जनाब हालात बदल चुके है...जरा एक गरीब और लाचार की झोपङी में जाकर देखे
आप लोग सभी समर्थक फिर खुद से निष्पक्छ फैसला ले कि क्या यह सहीं
है?हिन्दू मुस्लिम में फूट डालकर इन नेताओं का पेट लगता है भरा नहीं हैं
तभी तो कथित उच्च वर्ग और निम्न वर्ग को दोराहे पर लाकर खङा कर दिया
है...लो...खूब कटो-मरो...फायदा तो सत्ता की रोटी सेकने वालो का ही
है...लङो भारत के मूर्ख संप्रयदायिको अब तो एक और दंगा बाकी है...अरे
कहाँ गई भारतीय संस्र्किति!? अब क्या हर भारतीय भाई नहीं रहा ? क्यू बाँट
रहें हो देश को वर्ग के आधार पर! ज़मीर मर चुका है क्या सबका...कभी तो
धर्म-जाति-वर्ग जैसी तुच्छ चीजों से उपर सोचो! कभी तो शांत मन से विचार
करों! तब पता चलेगा कि आरक्छण क्या हैँ...सही है या फिर गलत..पर पहले
शांत,स्वच्छ मन से सोचो तो सहीं!
अगर किसी नियम से उपर से फायदा और भीतर से खोखलापन आये तो उस नियम को
त्याग देना ही समझदारी है ..."
इन देश के सौदागरो को...
हमें अपना दम दिखाना ही होगा...
आरक्च्ण के रोग से...
देश को मुक्त कराना ही होगा..."
-ठाकुर दीपक सिंह कवि
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