ग़ज़ल
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दिशा बदली निगाहों ने, निगाहे-यार को देखा।
सितम ढाते हुए अपने, सनम सरकार को देखा।
यहाँ पर यार मतलब की, मची चहुँदिश लड़ाई है,
जिए परहित, मरे परहित, फ़क़त दो-चार को देखा।
नहीं डाली नज़र यारा, दिले-बेताब पर उसने,
कभी रुपया, कभी डालर, कभी दीनार को देखा।
हँसे शैतान बेखटके, पिए है आदमी का ख़ूँ ,
भले इन्सान पर पड़ती, समय की मार को देखा।
डुबोने के लिए कश्ती, मिलाते हाथ तूफ़ाँ से,
हमारी आँख ने साजिश रचे पतवार को देखा।
गुलों को अश्क टपकाते, सिसकते 'सिद्ध' ने यारो,
सरे-गुलशन ठहाके भर, चहकते ख़ार को देखा।
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- ठाकुर दास 'सिद्ध'
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