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क्या बतलाएँ ज़ख़्मों की गहराई क्या

 


क्या बतलाएँ ज़ख़्मों की गहराई क्या
( रचना दिनांक 07-12-1996 )

रिश्तों में गर प्रीत नहीं रह पाई क्या।
 क्या है उसको भीड़ और तन्हाई क्या।

कुछ सिक्के मिल गए मौत के बदले तो,
हो पाएगी जीवन की भरपाई क्या।

अगर लूट का अवसर उसके हाथ लगे,
लुटने वाला अगर सगा हो भाई क्या।

जिसको केवल भरना रहता अपना घर,
क्या जानेगा होती पीर पराई क्या।

ऊपर से सब ठीक-ठाक सा लगता 'सिद्ध',
क्या बतलाएँ ज़ख़्मों की गहराई क्या।
***
               - ठाकुर दास 'सिद्ध'





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