Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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असमंजस

 

दिल में कई अरमां लिये
चल पडी थी मैं
जानें किसकी उलझनों को
अपनी उलझन समझ बैठी थी मैं
एक अरमां था, एक आशा थी
सबके गम के आंसुओ को ले रो पडी थी मैं

 

न जाने बिछडा वो पल
जो लगता है कुछ जन पहचाना सा
वे बीति हुई यादें साथ निभाने वल कल
लगता है सब अनजाना सा

 

लोग बदले समाज बदला बदल गई हर स्थिती
समय के साथ साथ हम भूल गये उनकी उपस्थिती

 

वे अभी भी उस गम में जीवित होगें
बिखरे हुए पल समेट रहे होगें
न जाने जीवन कैसे काट रहे होगें

 

दो पल की बेकरारी दो पल का अहसास था वो
जीवन में खुशी लाने का हलका सा आभास था वो

 

जीवन की कटती तारीखों के साथ
हम निभा न सके उनका साथ
जिदगीं की भागती रेल में
छूट गया हमसे उनका हाथ

 

अपनी ही उल्झनों में खोई रह गई मैं
खुद से ही लडते लडते कही सोई रह गई मैं
सोचा था उनकी मसीहा बनुगीं
अपने से किये हुए वादो से मुकर गई मैं

 

कभी कभी वह अरमां चिंगारी बन उठ जाता है
अपने स्वार्थी स्वभाव से मन उकता जाता है

 

क्यों सभी के अपने गम उनके अपने ही हो जाते है
जीवन के इस नीयम को हम क्यों नही भुला पाते हैं

 

 

तोशा दुबे

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